नई दिल्ली। Pakistan सरकार द्वारा पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को 2026 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करने की घोषणा ने न केवल वैश्विक राजनीति को चौंकाया, बल्कि भारत में एक नई बहस को जन्म दिया है। पाकिस्तान ने ट्रंप की भूमिका को “निर्णायक कूटनीतिक हस्तक्षेप” बताया है जिसने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध टाल दिया।
पर भारत के लिए यह सिर्फ एक नामांकन नहीं, बल्कि एक राजनयिक नौटंकी है, जो नमक का कर्ज चुकाने की मिसाल बन गई है। जिस तरह से पाकिस्तान ने अपने सेनाध्यक्ष की अमेरिका यात्रा के ठीक बाद यह प्रस्ताव रखा, भारत इसे एक “सैन्य-राजनैतिक गठजोड़” का हिस्सा मान रहा है, जिसका उद्देश्य भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर करना है।
भारत का आधिकारिक और स्पष्ट विरोध
17 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ट्रंप के बीच फोन पर हुई बातचीत में पीएम मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा:
“भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम हमारे सैन्य अधिकारियों के आपसी संवाद से संभव हुआ, न कि किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से।”
इसके बाद भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने भारत की परंपरागत नीति को दोहराया:
“भारत कभी भी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को स्वीकार नहीं करता, न ही करेगा।”
यह भारत की विदेश नीति की वह नींव है जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) से लेकर आज की बहुपक्षीय कूटनीति तक स्थिर रही है। Pakistan की ओर से ट्रंप को नोबेल के लिए नामित करने को भारत ने “राजनीतिक दिखावा” करार दिया है।
पाकिस्तान की ‘नियोजित’ रणनीति
भारत के रणनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह नामांकन:
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अमेरिका में ट्रंप के साथ संबंधों को मजबूत करने की कोशिश है,
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पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने की कवायद है,
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और भारत के सैन्य ऑपरेशन ‘सिंदूर’ की नैतिक सफलता को कमजोर करने का प्रयास।
यह वही पाकिस्तान है जो हमेशा “अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शिकार बनने का नाटक करता रहा है”, जबकि असल में आतंकवाद को संरक्षण देने और सीमा पार घुसपैठ में उसकी भूमिका स्पष्ट है।
भारत की सैन्य शक्ति और स्वावलंबन
भारत इस बात को बार-बार दोहराता आया है कि उसकी सीमाओं की रक्षा उसके अपने दम पर होती है, न कि किसी बाहरी दबाव या सिफारिश पर। हालिया सैन्य तनाव के दौरान भारत ने संयम और साहस दोनों का परिचय दिया:
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सीमा पर भारतीय वायुसेना और थलसेना की रिपॉन्सिव स्ट्राइक रणनीति,
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डीजीएमओ स्तर पर प्रत्यक्ष संवाद,
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और भारत की इंटेलिजेंस एजेंसियों का गहन विश्लेषण।
इन सभी प्रयासों के कारण ही हालात नियंत्रण में आए। ऐसे में ट्रंप को “शांतिदूत” बताना भारत के आत्मसम्मान पर हमला जैसा है।
क्या यह सिर्फ नोबेल की लालसा है?
भारत के पूर्व राजदूतों और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि यह नामांकन ट्रंप के पुनः राष्ट्रपति बनने की उम्मीदों को समर्थन देने की रणनीति भी हो सकती है। पाकिस्तान को शायद लगता है कि अगर ट्रंप दोबारा सत्ता में आते हैं, तो पाकिस्तान को फिर से अमेरिकी सहायता, F-16 जैसे हथियार या वित्तीय राहत मिल सकती है।
पर भारत की स्पष्ट सोच है:
“शांति को पुरस्कार से नहीं, कर्म से मापा जाता है।”
क्या सेना प्रमुख की अमेरिका यात्रा लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है?
भारत में इस बात पर खास चिंता जताई गई है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को दरकिनार कर सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर की अमेरिकी राष्ट्रपति से मुलाकात करवाई गई। यह साफ दर्शाता है कि पाकिस्तान में सैनिक सत्ता राजनीतिक सत्ता से ऊपर है।
भारत में यह व्यवहार अस्वीकार्य माना जाता है। एक लोकतंत्र में सैन्य नेतृत्व का विदेशी राजनीति में सीधा हस्तक्षेप संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ है।
भारत का अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण
भारत लगातार यह सुनिश्चित कर रहा है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी नीति स्वतंत्र, नैतिक और रणनीतिक रूप से संतुलित हो। संयुक्त राष्ट्र, G20, BRICS और अन्य मंचों पर भारत ने अपनी जिम्मेदारीपूर्ण भूमिका साबित की है।
डोनाल्ड ट्रंप के नामांकन जैसे निर्णय इस पूरे परिप्रेक्ष्य में सस्ते लोकप्रियता हथकंडे लगते हैं।
भारत में जनमानस की प्रतिक्रिया
सोशल मीडिया पर भी भारतीय नागरिकों ने पाकिस्तान के इस कदम का विनोद और विरोध दोनों से स्वागत किया। कुछ लोकप्रिय पोस्ट:
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“शांति की बात करने वाले ट्रंप, जिन्होंने खुद अमेरिका में दंगे देखे, और पाकिस्तान जिसने खुद अपने देश को जंग का मैदान बना दिया — वाह रे नोबेल!”
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“हमें नोबेल नहीं चाहिए, हमें हमारी LOC पर शांति चाहिए।”