नई दिल्ली । मध्य-पूर्व की राजनीति सदियों से टकराव, धर्म, और सत्ता के इर्द-गिर्द घूमती रही है। परंतु 2024-25 के इस संघर्ष में कुछ ऐसा हुआ जो पहले कभी नहीं देखा गया। जब Israel और ईरान एक बार फिर आमने-सामने आए, तो पूरी दुनिया को उम्मीद थी कि मुस्लिम देशों का मोर्चा फिर से इज़राइल के खिलाफ एकजुट होगा, जैसा पहले फिलिस्तीन या गज़ा संघर्षों के दौरान देखा गया था। लेकिन इस बार कुछ बदला-बदला सा है—अरब देश खामोश हैं, मुस्लिम देश तटस्थ हैं, और अमेरिका की भूमिका भी नई चाल में उलझी है।
ईरान-इज़राइल संघर्ष: क्या हुआ अब तक?
शुरुआत कब और कैसे हुई?
2024 के अंत में जब गज़ा में इज़राइल ने फिर से आक्रामक सैन्य कार्रवाई शुरू की, तो दुनिया भर के मुस्लिमों में आक्रोश उभरा। हज़ारों की संख्या में फिलिस्तीनी नागरिक मारे गए। इसके जवाब में ईरान ने चेतावनी दी कि यदि इज़राइल ने “लाल रेखा” पार की, तो उसका जवाब सैन्य तरीके से दिया जाएगा। अप्रैल 2025 में यह चेतावनी असलियत बन गई जब ईरान ने सीधे इज़राइल पर मिसाइल और ड्रोन हमले किए।
इज़राइल का पलटवार
ईरानी हमले के बाद इज़राइल ने न केवल सख्त जवाब दिया, बल्कि सीधे तेहरान की सेना के कुछ प्रमुख ठिकानों को निशाना बनाया। ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड (IRGC) के कई अधिकारियों की मौत की पुष्टि हुई। यह पहली बार था जब दोनों देशों ने इतने खुले तौर पर एक-दूसरे के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की।
पर सवाल ये: बाकी मुस्लिम देश कहां हैं?
अरब देशों की चुप्पी
सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE), बहरीन, मिस्र जैसे देश जो पहले फिलिस्तीन की ओर खुलकर खड़े होते थे, इस बार शांत हैं। न तो कोई सैन्य समर्थन और न ही कोई कूटनीतिक दबाव। यह सवाल उठता है—क्या ईरान की बढ़ती ताक़त खुद मुस्लिम देशों के लिए भी एक खतरा बन चुकी है?
ईरान: शक्ति का केंद्र या अकेला योद्धा?
ईरान अब सिर्फ एक इस्लामिक देश नहीं, बल्कि क्षेत्रीय शक्ति बन चुका है। उसके पास:
- मजबूत मिसाइल टेक्नोलॉजी
- ड्रोन हमले की दक्षता
- हिज़बुल्लाह, हूथी जैसे प्रॉक्सी मिलिशिया
- अमेरिका और इज़राइल के खिलाफ मजबूत बयानबाज़ी
पर इन सबके बावजूद, उसके पास एक बड़ी समस्या है—अकेलापन। जब वह इज़राइल से सीधे टकराया, तो अरब दुनिया ने कंधा देने की बजाय मुंह फेर लिया।
मुस्लिम देशों का दृष्टिकोण: कूटनीति या डर?
सऊदी अरब:
सऊदी अरब ईरान को हमेशा से एक ‘शिया विरोधी शक्ति’ के रूप में देखता रहा है। दोनों देशों के बीच दशकों से शीत युद्ध चल रहा है। हालाँकि हाल के वर्षों में बातचीत की पहल हुई, लेकिन विश्वास की दीवार अब भी मजबूत है।
UAE और बहरीन:
ये देश ‘अब्राहम अकॉर्ड’ के तहत इज़राइल से राजनयिक रिश्ते बना चुके हैं। व्यापार और तकनीकी विकास की ओर बढ़ते इन देशों के लिए अब युद्ध कोई विकल्प नहीं।
कतर और तुर्की:
तुर्की ने शब्दों में ज़रूर इज़राइल की आलोचना की, पर ठोस कदम नहीं उठाए। कतर ने मानवीय सहायता भेजी, पर सैन्य रूप से नहीं जुड़ा।
मीडिया, सोशल मीडिया और मुस्लिम जनता का ग़ुस्सा
जनता में नाराज़गी:
सोशल मीडिया पर #FreePalestine, #IranVsIsrael और #MuslimUnity जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। कई मुस्लिम युवाओं ने अपने देशों की चुप्पी पर सवाल उठाए हैं। खासकर अरब देशों की दोहरी नीति पर आलोचना तेज है।
क्या ईरान से मुस्लिम देश डरते हैं?
यह सवाल अब चर्चा में है। ईरान की बढ़ती सैन्य ताकत, परमाणु कार्यक्रम, और आक्रामक विदेश नीति अब अरब देशों के लिए भी चिंता का विषय बन चुकी है। वे नहीं चाहते कि ईरान पूरे इस्लामिक जगत का नेतृत्व करने लगे।
धर्म vs राजनीति
ईरान शिया देश है, जबकि अधिकांश मुस्लिम देश सुन्नी बहुल हैं। यह धार्मिक विभाजन इस संघर्ष में भी दिखता है। कई सुन्नी देश ईरान के नेतृत्व को स्वीकार नहीं करते।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: क्यों अलग है यह संघर्ष?
1948 से जब से इज़राइल अस्तित्व में आया, तब से हर बार जब भी कोई बड़ा संघर्ष हुआ, मुस्लिम देश एकजुट होकर विरोध में खड़े हुए। 1967 का छह दिवसीय युद्ध हो, या 1973 का योम किप्पुर युद्ध—अरब एकता प्रमुख थी। लेकिन 2025 में यह एकता सिर्फ बयानबाज़ी में सीमित रह गई है।
भारत और वैश्विक दक्षिण की भूमिका
भारत ने अब तक इस मुद्दे पर संयम बरता है। वह दोनों देशों के साथ व्यापारिक और कूटनीतिक रिश्ते बनाए रखना चाहता है। लेकिन भारत की जनता, खासकर मुस्लिम समुदाय में इस मुद्दे पर असंतोष है। सोशल मीडिया और सार्वजनिक विमर्श में भारत सरकार की ‘तटस्थता’ पर सवाल उठते रहे हैं।
तेल बाजार और आर्थिक प्रभाव
मध्य-पूर्व में किसी भी बड़े युद्ध का असर वैश्विक तेल बाजार पर पड़ता है। अगर ईरान-इज़राइल संघर्ष बढ़ता है तो कच्चे तेल की कीमतें बढ़ सकती हैं, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ेगा। भारत जैसे देश जो अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए आयात पर निर्भर हैं, उन्हें इसका सीधा असर झेलना पड़ सकता है।
संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय संगठन
संयुक्त राष्ट्र ने इस संघर्ष को रोकने के लिए कई बैठकें की हैं, लेकिन कोई ठोस प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया। अमेरिका और पश्चिमी देश इज़राइल के पक्ष में हैं, जबकि रूस और चीन ने तटस्थ रुख अपनाया है।
नई ध्रुवीकरण: कौन किसके साथ?
पक्ष | देश | रुख |
---|---|---|
इज़राइल समर्थक | अमेरिका, UK, फ्रांस, जर्मनी, UAE, बहरीन | सैन्य या कूटनीतिक समर्थन |
ईरान समर्थक | हिज़बुल्लाह (लेबनान), सीरिया, हूथी (यमन), इराक़ी मिलिशिया | प्रॉक्सी समर्थन |
तटस्थ | सऊदी अरब, तुर्की, मिस्र, भारत | कूटनीतिक संयम |
भविष्य की राह: और क्या हो सकता है?
क्षेत्रीय युद्ध में तब्दील?
अगर ईरान फिर हमला करता है, तो इज़राइल अमेरिका के साथ मिलकर सीधा युद्ध शुरू कर सकता है। इसका असर पूरे खाड़ी क्षेत्र पर पड़ेगा।
परमाणु खतरा
ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाएं इस युद्ध को और गंभीर बना सकती हैं। इज़राइल ने पहले ही कहा है कि वह ईरान को परमाणु हथियार हासिल नहीं करने देगा।
मानवीय संकट
संघर्ष के चलते लाखों नागरिकों के विस्थापन और मानवीय संकट की आशंका बढ़ गई है। अंतरराष्ट्रीय मदद की दरकार होगी।
क्या अकेला पड़ गया ईरान?
एक समय था जब मुस्लिम देश इज़राइल के खिलाफ एकजुट होते थे, पर अब ऐसा नहीं है। ईरान की अपनी रणनीति, शक्ति और धार्मिक वैचारिकता ने उसे अलग-थलग कर दिया है। दूसरी ओर, इज़राइल अंतरराष्ट्रीय समर्थन के साथ मज़बूती से खड़ा है।
इस युद्ध में केवल गोलियां नहीं चल रहीं, बल्कि कूटनीति, डर, और धार्मिक नेतृत्व की जंग भी छिड़ी है। और इस बार मुस्लिम दुनिया शायद पहली बार “चुप्पी की तलवार” से युद्ध देख रही है।